अपने डरों पर जय कैसे पाएं
परिचय
पीढ़ी (जो 1981 और 2000 के बीच जन्में हैं) को कभी कभी 'डर की पीढ़ी' कहा जाता है। अपने सबसे प्रचलित गाने में, 'डर', लिली एलेन गाती हैं:
मुझे नहीं पता कि क्या सही है और क्या सच्चा है...
क्योंकि डर ने मुझे जकड़ लिया है।'
बाइबल में 'डर' के दो अर्थ हैं –एक स्वस्थ, एक अस्वस्थ। शब्द के अच्छे बोध में, सामान्य रूप से इसका इस्तेमाल परमेश्वर के लिए सम्मान के संदर्भ में किया गया है और कभी कभी लोगों के सम्मान में (विशेष रूप से वे लोग जो अधिकार के स्थान में हैं)।
बुरे बोध में इसका अर्थ है भयभीत होना। हमें परमेश्वर का भय मानने की आवश्यकता है (अच्छे बोध में) और किसी भी व्यक्ति या वस्तु से डरना नहीं है। आज बहुत से लोग इसके विपरीत जीते हैं। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते हैं लेकिन उनके जीवन गलत प्रकार के डर से भरे हुए हैं।
आप कैसे अपने डरों पर जय पाते हैं?
भजन संहिता 39:1-13
संगीत निर्देशक को यदूतून के लिये दाऊद का एक पद।
39मैंने कहा, “जब तक ये दुष्ट मेरे सामने रहेंगे,
तब तक मैं अपने कथन के प्रति सचेत रहूँगा।
मैं अपनी वाणी को पाप से दूर रखूँगा।
और मैं अपने मुँह को बंद कर लूँगा।”
2 सो इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा।
मैंने भला भी नहीं कहा!
किन्तु मैं बहुत परेशान हुआ।
3 मैं बहुत क्रोधित था।
इस विषय में मैं जितना सोचता चला गया, उतना ही मेरा क्रोध बढ़ता चला गया।
सो मैंने अपना मुख तनिक नहीं खोला।
4 हे यहोवा, मुझको बता कि मेरे साथ क्या कुछ घटित होने वाला है?
मुझे बता, मैं कब तक जीवित रहूँगा?
मुझको जानने दे सचमुच मेरा जीवन कितना छोटा है।
5 हे यहोवा, तूने मुझको बस एक क्षणिक जीवन दिया।
तेरे लिये मेरा जीवन कुछ भी नहीं है।
हर किसी का जीवन एक बादल सा है। कोई भी सदा नहीं जीता!
6 वह जीवन जिसको हम लोग जीते हैं, वह झूठी छाया भर होता है।
जीवन की सारी भाग दौड़ निरर्थक होती है। हम तो बस व्यर्थ ही चिन्ताएँ पालते हैं।
धन दौलत, वस्तुएँ हम जोड़ते रहते हैं, किन्तु नहीं जानते उन्हें कौन भोगेगा।
7 सो, मेरे यहोवा, मैं क्या आशा रखूँ?
तू ही बस मेरी आशा है!
8 हे यहोवा, जो कुकर्म मैंने किये हैं, उनसे तू ही मुझको बचाएगा।
तू मेरे संग किसी को भी किसी अविवेकी जन के संग जैसा व्यवहार नहीं करने देगा।
9 मैं अपना मुँह नहीं खोलूँगा।
मैं कुछ भी नहीं कहूँगा।
यहोवा तूने वैसे किया जैसे करना चाहिए था।
10 किन्तुपरमेश्वर, मुझको दण्ड देना छोड़ दे।
यदि तूने मुझको दण्ड देना नहीं छोड़ा, तो तू मेरा नाश करेगा!
11 हे यहोवा, तू लोगों को उनके कुकर्मो का दण्ड देता है। और इस प्रकार जीवन की खरी राह लोगों को सिखाता है।
हमारी काया जीर्ण शीर्ण हो जाती है। ऐसे उस कपड़े सी जिसे कीड़ा लगा हो।
हमारा जीवन एक छोटे बादल जैसे देखते देखते विलीन हो जाती है।
12 हे यहोवा, मेरी विनती सुन!
मेरे शब्दों को सुन जो मैं तुझसे पुकार कर कहता हूँ।
मेरे आँसुओं को देख।
मैं बस राहगीर हूँ, तुझको साथ लिये इस जीवन के मार्ग से गुजरता हूँ।
इस जीवन मार्ग पर मैं अपने पूर्वजों की तरह कुछ समय मात्र टिकता हूँ।
13 हे यहोवा, मुझको अकेला छोड़ दे,
मरने से पहले मुझे आनन्दित होने दे, थोड़े से समय बाद मैं जा चुका होऊँगा।
समीक्षा
अपने डरों के विषय में ईमानदार बनें
हम सभी डर का अनुभव करते हैं। आप अपने डर को छिपाने की कोशिश कर सकते हैं और इसे मानने से इनकार कर सकते हैं या आप उनके विषय में ईमानदार और खुले हो सकते हैं।
दाऊद परमेश्वर के सामने कुछ जलते हुए प्रश्नों के साथ आते हैं। उसने 'शांत और चुप' रहने की कोशिश की थी लेकिन पाया कि उनकी 'पीड़ा बढ़ गई' जब वह परमेश्वर के साथ बातचीत नहीं कर रहे थे (व.2)।
उसने महसूस किया था कि मानवीय जीवन कितना अधिक चिंता और डर में बीतता है। डर हमेशा पैसे की चिंता करता हैः'मनुष्य...सचमुच वे व्यर्थ घबराते हैं; वह धन का संचय तो करता है, परंतु नहीं जानता कि उसे कौन लेगा' (व.6)।
किंतु, हमारे अधिकतर डर कष्ट, मृत्यु और जीवन की संक्षिप्तता की चिंता करते हैं (व.4-5)।
दाऊद निश्चित रूप से उस कष्ट के विषय में चिंतित हैं जो उन्हें अपने आस-पास और अपने जीवन के आस-पास दिखाई देते हैं। वह समझ नहीं पाते हैं कि कैसे परमेश्वर ने इन्हें आने दिया। वह परमेश्वर का कार्य करते हुए इतने बूढ़े हो जाते हैं कि वह प्रार्थना करते हैं, 'प्रभु मुझे बचा ले जिससे मैं प्रदीप्त जीवन प्राप्त करुँ' (व.13)।
निराशा के बीच में अच्छा है कि आप अपनी चिंताओं और दुखो को परमेश्वर को बताएँ। परमेश्वर समझते हैं कि कष्ट हमें उलझन में डाल देंगे और दुखी कर देंगे –उन्होंने हमारे लिए इससे भी बदतर को सहा।
यह भजन कष्ट के विषय में इस डर का पूर्ण उत्तर प्रदान नहीं करता। फिर भी, जैसा कि दाऊद अपने डर, पीड़ा और निराशा को परमेश्वर के सामने रखते हैं, हम देखते हैं कि उन्हें उत्तर परमेश्वर के साथ उनके संबंध में प्राप्त होता है। दाऊद परमेश्वर से कहते हैं: 'मेरी आशा आपमें है' (व.7)। और अंत में उनकी प्रार्थना बताती है कि वह एक उत्तर के लिए पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर हैं।
प्रार्थना
लूका 8:19-39
यीशु के अनुयायी ही उसका सच्चा परिवार है
19 तभी यीशु की माँ और उसके भाई उसके पास आये किन्तु वे भीड़ के कारण उसके निकट नहीं जा सके। 20 इसलिये यीशु से यह कहा गया, “तेरी माँ और तेरे भाई बाहर खड़े हैं। वे तुझसे मिलना चाहते हैं।”
21 किन्तु यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, “मेरी माँ और मेरे भाई तो ये हैं जो परमेश्वर का वचन सुनते हैं और उस पर चलते हैं।”
शिष्यों को यीशु की शक्ति का दर्शन
22 तभी एक दिन ऐसा हुआ कि वह अपने शिष्यों के साथ एक नाव पर चढ़ा और उनसे बोला, “आओ, झील के उस पार चलें।” सो उन्होंने पाल खोल दी। 23 जब वे नाव चला रहे थे, यीशु सो गया। झील पर आँधी-तूफान उतर आया। उनकी नाव में पानी भरने लगा। वे ख़तरे में पड़ गये। 24 सो वे उसके पास आये और उसे जगाकर कहने लगे, “स्वामी! स्वामी! हम डूब रहे हैं।”
फिर वह खड़ा हुआ और उसने आँधी तथा लहरों को डाँटा। वे थम गयीं और वहाँ शान्ति छा गयी। 25 फिर उसने उनसे पूछा, “कहाँ गया तुम्हारा विश्वास?”
किन्तु वे डरे हुए थे और अचरज में पड़ें थे। वे आपस में बोले, “आखिर यह है कौन जो हवा और पानी दोनों को आज्ञा देता है और वे उसे मानते हैं?”
दुष्टात्मा से छुटकारा
26 फिर वे गिरासेनियों के प्रदेश में पहुँचे जो गलील झील के सामने परले पार था। 27 जैसे ही वह किनारे पर उतरा, नगर का एक व्यक्ति उसे मिला। उसमें दुष्टात्माएँ समाई हुई थीं। एक लम्बे समय से उसने न तो कपड़े पहने थे और न ही वह घर में रहा था, बल्कि वह कब्रों में रहता था।
28-29 जब उसने यीशु को देखा तो चिल्लाते हुए उसके सामने गिर कर ऊँचे स्वर में बोला, “हे परम प्रधान (परमेश्वर) के पुत्र यीशु, तू मुझसे क्या चाहता है? मैं विनती करता हूँ मुझे पीड़ा मत पहुँचा।” उसने उस दुष्टात्मा को उस व्यक्ति में से बाहर निकलने का आदेश दिया था, क्योंकि उस दुष्टात्मा ने उस मनुष्य को बहुत बार पकड़ा था। ऐसे अवसरों पर उसे बेड़ियों से बाँध कर पहरे में रखा जाता था। किन्तु वह सदा ज़ंजीरों को तोड़ देता था और दुष्टात्मा उसे वीराने में भगाए फिरती थी।
30 सो यीशु ने उससे पूछा, “तेरा नाम क्या है?”
उसने कहा, “सेना।” (क्योंकि उसमें बहुत सी दुष्टात्माएँ समाई थीं।) 31 वे यीशु से तर्क-वितर्क के साथ विनती कर रही थीं कि वह उन्हें गहन गर्त में जाने की आज्ञा न दे। 32 अब देखो, तभी वहाँ पहाड़ी पर सुअरों का एक बड़ा झुण्ड चर रहा था। दुष्टात्माओं ने उससे विनती की कि वह उन्हें सुअरों में जाने दे। सो उसने उन्हें अनुमति दे दी। 33 इस पर वे दुष्टात्माएँ उस व्यक्ति में से बाहर निकलीं और उन सुअरों में प्रवेश कर गयीं। और सुअरों का वह झुण्ड नीचे उस ढलुआ तट से लुढ़कते पुढ़कते दौड़ता हुआ झील में जा गिरा और डूब गया।
34 झुण्ड के रखवाले, जो कुछ हुआ था, उसे देखकर वहाँ से भाग खड़े हुए। और उन्होंने इसका समाचार नगर और गाँव में जा सुनाया। 35 फिर वहाँ के लोग जो कुछ घटा था उसे देखने बाहर आये। वे यीशु से मिले। और उन्होंने उस व्यक्ति को जिसमें से दुष्टात्माएँ निकली थीं यीशु के चरणों में बैठे पाया। उस व्यक्ति ने कपड़े पहने हुए थे और उसका दिमाग एकदम सही था। इससे वे सभी डर गये। 36 जिन्होंने देखा, उन्होंने लोगों को बताया कि दुष्टात्मा-ग्रस्त व्यक्ति कैसे ठीक हुआ। 37 इस पर गिरासेन प्रदेश के सभी निवासियों ने उससे प्रार्थना की कि वह वहाँ से चला जाये क्योंकि वे सभी बहुत डर गये थे।
सो यीशु नाव में आया और लौट पड़ा। 38 किन्तु जिस व्यक्ति में से दुष्टात्माएँ निकली थीं, वह यीशु से अपने को साथ ले चलने की विनती कर रहा था। इस पर यीशु ने उसे यह कहते हुए लौटा दिया कि, 39 “घर जा और जो कुछ परमेश्वर ने तेरे लिये किया है, उसे बता।”
सो वह लौटकर, यीशु ने उसके लिये जो कुछ किया था, उसे सारे नगर में सबसे कहता फिरा।
समीक्षा
निरंतर यीशु पर भरोसा करें
आपके जीवन में ऐसे समय आ सकते हैं जब डर पराजित करने वाला लगता है। कभी कभी यह अनपेक्षित तूफान की तरह है जिसे चेलों ने अनुभव किया था (वव.22-25)।
इस भाग की शुरुवात आत्मिकता और सम्मान के एक असाधारण मेल के साथ होती है,, यीशु अपने अनुयायियों के विषय में कहते हैं कि 'जो लोग परमेश्वर के वचन को सुनते हैं और इसे करते हैं' (व.21) वह परमेश्वर के साथ एक आत्मिक संबंध में हैं। वे उसके 'माता और भाई' हैं (व21)।
आत्मिकता और 'डर' (अच्छे बोध में) एक दूसरे के विपरीत नहीं हैं –वे एक दूसरे के पूरक हैं। यह सर्वश्रेष्ठ संबंधो के विषय में सच है - चाहे विवाह में, नजदीकी मित्रता में या माता-पिता और बच्चों के साथ। असाधारण आत्मिकता स्वस्थ सम्मान के साथ जुड़ी हुई है। चेलों ने दो अलग प्रकार के डर का अनुभव किया जब वे यीशु के साथ झील पर थे। जब एक तूफान आया तब वे 'बड़े खतरे' में थे (व.23) और चेले भयभीत थे। उन्होंने यीशु को नींद से जगाया और कहा, 'स्वामी, स्वामी, हम डूब रहे हैं!' (व.24अ)।
यीशु उठे और हवा को और पानी को डाँटा; तूफान रूक गया और वहॉं पर बड़ी शांति हो गई (व.24ब)। उन्होंने अपने चेलों से कहा, 'तुम्हारा विश्वास कहाँ है?' (व.25अ)। दुबारा हम अस्वस्थ डर और विश्वास के बीच अंतर को देखते हैं। यीशु ने उनसे कहा, 'तुम मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते हो?' (व.25अ, एम.एस.जी.)।
उनके डर का उत्तर बहुत सरल है और फिर भी इसका अभ्यास करना बहुत कठिन है। मैंने इसे एक सीख के रूप में देखा है जिसे बार-बार सीखने की जरुरत है। आपके डरों के बीच में, निरंतर यीशु पर भरोसा करना –निरंतर उनमें अपने भरोसे को रखना। कभी कभी यीशु तूफान को रोक देते हैं, जैसा कि उन्होंने यहॉं पर किया। कभी कभी वह तूफान को बढ़ने देते हैं और वह आपको शांत करते हैं।
यीशु के लिए चेलों का उत्तर एक स्वस्थ डर है – पूर्ण सम्मान (व.25ब, एम.एस.जी.), यीशु की उपस्थिति में आश्चर्य और दीनता। वे एक दूसरे से पूछते हैं: यह कौन है?' (व.25)।
उस दुष्टात्माग्रस्त मनुष्य से उन्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाता है, जिसे यीशु चंगा करते हैं। यीशु 'परमप्रधान परमेश्वर के पुत्र हैं' (व.28)।
जब सुअरों को चराने वालों ने देखा कि वह मनुष्य चंगा हो गया है, 'यीशु के चरणों में बैठा हुआ है, अच्छी तरह से कपडे पहनकर और उसका दिमाग अब सही है,' तब वे लोग 'घबरा गए' (व.35) -'मृत्यु का भय उन पर छा गया' (व.34, एम.एस.जी.)। उन्होंने यीशु को वहॉं से जाने के लिए कहा क्योंकि वे 'डर से प्रभावित हो चुके थे' (व.37) - 'बहुत ज्यादा बदलाव, बहुत जल्दी और वे घबरा गए' (व.37, एम.एस.जी.)।
दुबारा यह गलत प्रकार का भय था। वे घबरा गए थे क्योंकि उन्होंने मूल्यवान सुअरों को खो दिया था। आगे क्या होगा? वे एक व्यक्ति के जीवन के महान मूल्य को नहीं देख सकते थे। डर के कारण उन्होंने यीशु को नकार दिया, लेकिन यीशु को न तो उनका और नाही किसी दूसरी वस्तु का डर था।
यीशु का एक दिलचस्प तरीका है जिसे हमें सीखना है। जो व्यक्ति दुष्टात्मा से ग्रस्त था वह 'यीशु के साथ जाना' चाहता था (व.38)। किंतु, यीशु उसे सीधे जाकर दूसरों को बताने के लिए कहते हैं। वह कहते हैं, 'घर जाओ और बताओं कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए क्या किया है।' इसलिए वह व्यक्ति गया और पूरे नगर में जाकर बताने लगा कि यीशु ने उसके लिए क्या किया है (व.39)।
यीशु से मिलकर, उसने परमेश्वर से मुलाकात की थी। लूका इसे परस्पर बदलकर बताते हैं, 'परमेश्वर ने तुम्हारे लिए कितना अधिक किया है' (व.39अ) 'और यीशु ने उसके लिए कितना अधिक किया है' (व.38 ब)। यीशु परमेश्वर हैं। यही कारण है कि आखिरकार यीशु हमारे सभी अस्वस्थ डर का उत्तर हैं। डर के द्वारा पराजित मत हो, बल्कि यीशु के साथ डर को पराजित करो।
प्रार्थना
गिनती 29:12-31:24
बटोरने का पर्व
12 “सातवें महीने के पन्द्रहवें दिन एक विशेष बैठक होगी। तुम उस दिन कोई काम नहीं करोगे। तुम यहोवा के लिए सात दिन तक छुट्टी मनाओगे। 13 तुम होमबलि चढ़ाओगे। यह यहोवा के लिए मधुर गन्ध होगी। तुम दोष रहित तेरह साँड, दो मेढ़े और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनें भेंट चढ़ाओगे। 14 तुम तेरह बैलों में से हर एक के साथ जैतून के साथ मिले हुए छः क्वार्ट आटे, दोनों मेढ़ों में से हर एक के लिए चार क्वार्ट 15 और चौदह मेढ़ों में से हर एक के लिए दो क्वार्ट आटे की भेंट चढ़ाओगे। 16 तुम्हें एक बकरा भी पापबलियों के रूप में अर्पित करना चाहिए। यह दैनिकबलि, अन्न और पेय भेंट के अतिरिक्त होगी।
17 “इस पर्व के दूसरे दिन तुम्हें दोष, रहित बारह साँड, दो मेढ़ें और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंटे चढ़ानी चाहिए। 18 तुम्हें साँड, मेढ़ों और मेमनों के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय भेंट भी चढ़ानी चाहिए। 19 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होगी।
20 “इस छुट्टी के तीसरे दिन तुम्हें दोष रहित ग्यारह साँड, दो मेढ़े और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंट चढ़ानी चाहिए। 21 तुम्हें बैलों, मेढ़ों और मेमनों के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय की भेंट भी चढ़ानी चाहिए। 22 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होनी चाहिए।
23 “इस छुट्टी के चौथे दिन तुम्हें दोष रहित दस साँड, दो मेढ़े और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंट चढ़ानी चाहिए। 24 तुम्हें बैलों, मेढ़ों और मेमनों के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय की भेंट चढ़ानी चाहिए। 25 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होगी।
26 “इस छुट्टी के पाँचवें दिन तुम्हें दोष रहित नौ साँड, दो मेढ़े और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंट चढ़ानी चाहिए। 27 तुम्हें बैलों, मेढ़ों और मेमनों के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न तथा पेय की भी भेंट चढ़ानी चाहिए। 28 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होगी।
29 “इस छुट्टी के छठे दिन तुम्हें दोष रहित आठ साँड, दो मेढ़ें और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंट चढ़ानी चाहिए। 30 तुम्हें बैलों, मेढ़ों और मेमनों के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय की भेंट भी चढ़ानी चाहिए। 31 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होगी।
32 “इस छुट्टी के सातवें दिन तुम्हें दोष रहित सात साँड, दो मेढ़े, और एक—एक वर्ष के चौदह मेमनों की भेंट चढ़ानी चाहिए। 33 तुम्हें बैलो, मेढ़ों और मेमनो के साथ अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय की भी भेंट चढ़ानी चाहिए। 34 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होगी।
35 “इस छुट्टी का आठवाँ दिन तुम्हारी विशेष बैठक का दिन है। तुम्हें उस दिन कोई काम नहीं करना चाहिए। 36 तुम्हें होमबलि चढ़ानी चाहिए। ये आग द्वारा दी गई भेंट होगी। यह यहोवा के लिए मधुर सुगन्ध होगी। तुम्हें दोषरहित एक साँड, एक मेढ़ा और एक—एक वर्ष के सात मेमने भेंट में चढ़ाने चाहिए। 37 तुम्हें साँड, मेढ़ा और मेमनों के लिए अपेक्षित मात्रा में अन्न और पेय की भी भेंट देनी चाहिए। 38 तुम्हें पापबलि के रूप में एक बकरे की भी भेंट देनी चाहिए। यह दैनिक बलि और अन्नबलि तथा पेय भेंट के अतिरिक्त भेंट होनी चाहिए।
39 “वे (तुम्हारे) विशेष छुट्टियाँ यहोवा के सम्मान के लिए हैं। तुम्हें उन विशेष मनौतियों, स्वेच्छा भेंटों, होमबलियों मेलबलियों या अन्न और पेय भेंटे, जो तुम यहोवा को देना चाहते हो, उसके अतिरिक्त इन विशेष दिनों को मनाना चाहिए।”
40 मूसा ने इस्राएल के लोगों से उन सभी बातों को कहा जो यहोवा ने उसे आदेश दिया था।
विशेष दिए गए वचन
30मूसा ने सभी इस्राएली परिवार समूहों के नेताओं से बातें कीं। मूसा ने यहोवा के इन आदेशों के बारे में उनसे कहाः
2 “यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर को विशेष वचन देता है या यदि वह व्यक्ति यहोवा को कुछ विशेष अर्पित करने का वचन देता है तो उसे वैसा ही करने दो। किन्तु उस व्यक्ति को ठीक वैसा ही करना चाहिए जैसा उसने वचन दिया है।
3 “सम्भव है कि कोई युवती अपने पिता के घर पर ही रहती हो और वह युवती यहोवा को कुछ चढ़ाने का विशेष वचन देती है 4 और उसका पिता इस वचन के विषय में सुनता है और उसे स्वीकार करत लेता है तो उस युवती को उस वचन को अवश्य ही पूरा कर देना चाहिए जिसे करने का उसने वचन दिया है। 5 किन्तु यदि उसका पिता उसके दिये गये वचन के बारे में सुन कर उसे स्वीकार नहीं करता तो उस युवती को वह वचन पूरा नहीं करना है। उसके पिता ने उसे रोका अतः यहोवा उसे क्षमा करेगा।
6 “सम्भव है कोई स्त्री अपने विवाह से पहले यहोवा को कोई वचन देती है अथवा बात ही बात में बिना सोचे विचारे कोई वचन ले लेती है और बाद में उसका विवाह हो जाता है 7 और पति दिये गये वचन के बारे में सुनता है और उसे स्वीकार करता है तो उस स्त्री को अपने दिये गए वचन के अनुसार काम को पूरा करना चाहिए। 8 किन्तु यदि पति दिये गए वचन के बारे में सुनता है और उसे स्वीकार नहीं करता तो स्त्री को अपने दिये गए वचन को पूरा नहीं करना पड़ेगा। उसके पति ने उसका वचन तोड़ दिया और उसने उसे उसकी कही बात को पूरा नहीं करने दिया, अतः यहोवा उसे क्षमा करेगा।
9 “कोई विधवा या तलाक दी गई स्त्री विशेष वचन दे सकती है। यदि वह ऐसा करती है तो उसे ठीक अपने वचन के अनुसार करना चाहिए।
10 “एक विवाहित स्त्री यहोवा को कुछ चढ़ाने का वचन दे सकती है। 11 यदि उसका पति दिये गए वचन के बारे में सुनता है और उसे अपने वचन को पूरा करने देता है, तो उसे ठीक अपने दिए गए वचनों के अनुसार ही वह कार्य करना चाहिए। 12 किन्तु यदि उसका पति उसके दिये गए वचन को सुनता है और उसे वचन पूरा करने से इन्कार करता है, तो उसे अपने दिये वचन के अनुसार वह कार्य पूरा नहीं करना पड़ेगा। इसका कोई महत्व नहीं होगा कि उसने क्या वचन दिया था, उसका पति उस वचन को भंग कर सकता है। यदि उसका पति वचन को भंग करता है, तो यहोवा उसे क्षमा करेगा। 13 एक विवाहित स्त्री यहोवा को कुछ चढ़ाने का वचन दे सकती है या स्वयं को किसी चीज़ से वंचित रखने का वचन दे सकती है या वह परमेश्वर को कोई विशेष वचन दे सकती है। उसका पति उन वचनों में से किसी को रोक सकता है या पति उन वचनों में से किसी को पूरा करने दे सकता है। 14 पति अपना पत्नी को कैसे अपने वचन पूरा करने देगा यदि वह दिये वचन के बारे में सुनता है और उन्हें रोकता नहीं है तो स्त्री को अपने दिए वचन के अनुसार कार्य को पूरा करना चाहिए। 15 किन्तु यदि पति दिये गए वचन के बारे में सुनता है और उन्हें रोकता है तो उसके वचन तोड़ने का उत्तरदायित्व पति पर होगा।”
16 ये आदेश है जिन्हें यहोवा ने मूसा को दिया। ये आदेश एक व्यक्ति और उसकी पत्नी के बारे में है तथा पिता और उसकी उस पुत्री के बारे में है जो युवती हो और अपने पिता के घर में रह रही हो।
इस्राएल ने मिद्यानियों के विरुद्ध प्रत्याक्रमण किया
31यहोवा ने मूसा से बात की। उसने कहा, 2 “मैं इस्राएल के लोगों के साथ मिद्यानियों ने जो किया है उसके लिए उन्हें दण्ड दूँगा। उसके बाद, मूसा, तू मर जाएगा।”
3 इसलिए मूसा ने लोगों से बात की। उसने कहा, “अपने कुछ पुरुषों को युद्ध के लिए तैयार करो। यहोवा उन व्यक्तियों का उपयोग मिद्यानियों को दण्ड देने में करेगा। 4 ऐसे एक हजार पुरुषों को इस्राएल के हर एक कबीले से चुनो। 5 इस्राएल के सभी परिवार समूहों से बारह हजार सैनिक होंगे।”
6 मूसा ने उन बारह हजार पुरुषों को युद्ध के लिए भेजा। उसने याजक एलीआज़ार को उनके साथ भेजा। एलीआज़ार ने अपने साथ पवित्र वस्तुएं, सींग और बिगुल ले लिए। 7 इस्राएली लोगों के साथ वैसे ही लड़े जैसा यहोवा ने मूसा को आदेश दिया था। उन्होंने सभी मिद्यानीं पुरुषों को मार डाला। 8 जिन लोगों को उन्होंने मार डाला उनमें एवी, रेकेम, सूर, हूर, और रेबा ये पाँच मिद्यानी राजा थे। उन्होंने बोर के पुत्र बिलाम को भी तलवार से मार डाला।
9 इस्राएल के लोगों ने मिद्यानी स्त्रियों और बच्चों को बन्दी बनाया। उन्होंने उनकी सारी रेवड़ों, मवेशियों के झुण्डों और अन्य चीज़ों को ले लिया। 10 तब उन्होंने उनके उन सारे खेमों और नगरों में आग लगा दी जहाँ वे रहते थे। 11 उन्होंने सभी लोगों और जानवरों को ले लिया, 12 और उन्हें मूसा, याजक एलीआज़ार और इस्राएल के सभी लोगों के पास लाए। वे उन सभी चीज़ों को इस्राएल के डेरे में लाए जिन्हें उन्होंने वहाँ प्राप्त किया। इस्राएल के लोग मोआब में स्थित यरदन घाटी में डेरा डाले थे। यह यरीहो के समीप यरदन नदी के पूर्व की ओर था। 13 तब मूसा, याजक एलीआज़ार और लोगों के नेता सैनिकों से मिलने के लिए डेरों से बाहर गए।
14 मूसा सेनापतियों पर बहुत क्रोधित था। वह उन एक हजार की सेना के संचालकों और सौ की सेना के संचालकों पर क्रोधित था जो युद्ध से लौट कर आए थे। 15 मूसा ने उनसे कहा, “तुम लोगों ने स्त्रियों को क्यों जीवित रहने दिया 16 देखो यह स्त्री ही थी जिसके कारण बिलाम की घटना में इस्रालियों के लिए समस्याएं पैदा हुईं और पोर में वे यहोवा के विरुद्ध हो गये जिससे इस्राएल के लोगों को महामारी झेलनी पड़ी। 17 अब सभी मिद्यानी लड़कों को मार डालो और उन सभी मिद्यानी स्त्रियों को मार डालो जो किसी व्यक्ति के साथ रही हैं। उन सभी स्त्रियों को मार डालो जिनका किसी पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध था। 18 तुम केवल उन सभी लड़कियों को जीवित रहने दे सकते हो जिनका किसी पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध नहीं हुआ है। 19 तब अन्य व्यक्तियों को मारने वाले तुम लोगों को सात दिन तक डेरे के बाहर रहना पड़ेगा। तुम्हें डेरे से बाहर रहना होगा यदि तुमने किसी शव को छूआ हो। तीसरे दिन तुम्हें और तुम्हारे बन्दियों को अपने आप को शुद्ध करना होगा। तुम्हें वही कार्य सातवें दिन फिर करना होगा। 20 तुम्हें अपने सभी कपड़े धोने चाहिए। तुम्हें चमड़े की बनी हर वस्तु ऊनी और लकड़ी की बनी वस्तुओं को भी धोना चाहिए। तुम्हें शुद्ध हो जाना चाहिए।”
21 तब याजक एलीआज़ार ने सैनिकों से बात की। उसने कहा, “ये नियम वे ही हैं जिन्हें यहोवा ने मूसा को दिए थे। वे नियम युद्ध से लौटने वाले सैनिकों के लिए हैं। 22-23 किन्तु जो चीज़ें आग में डाली जा सकती हैं उनके बारे में अलग—अलग नियम हैं। तुम्हें सोना, चाँदी, काँसा, लोहा, टिन या सीसे को आग में डालना चाहिए और जब उन्हें पानी से धोओ वे शुद्ध हो जाएंगी। यदि चीज़ें आग में न डाली जा सकें तो तुम्हें उन्हें पानी से धोना चाहिए। 24 सातवें दिन तुम्हें अपने सारे वस्त्र धोने चाहिए। जब तुम शुद्ध हो जाओगे।”
समीक्षा
परमेश्वर से डरो और किसी चीज से नहीं
पुराने नियम के लेखांश की यें घटनाएँ हमारे आधुनिक कानों को आश्चर्यचकित करती हैं। पुराने नियम के कुछ भाग बहुत कठिन लगते हैं (उदाहरण के लिए, गिनती 31:15-18)। इन मामलों के लिए कोई सरल उत्तर नहीं है। कभी कभी हम केवल यह कर सकते हैं कि परमेश्वर के प्रेम और भलाई के विषय में जो हम जानते हैं उसे पकड़े रहे, और भरोसा करें कि यह एक उत्तर है - यहाँ तक कि यदि यह हमें पूरी तरह से समझ में नहीं आता है।
इन घटनाओं में हम देख सकते हैं कि पुराने नियम में परमेश्वर के लोगों को परमेश्वर का एक बहुत ही स्वस्थ डर था। परमेश्वर की उपस्थिति में प्रवेश को वे हल्के में नहीं लेते थे। वे जानते थे कि उनका प्रेमी परमेश्वर, न्यायी परमेश्वर थे, जो कि पाप और विद्रोह को बहुत ही गंभीरता से लेते हैं (गिनती 31)।
मसीहों के रूप में, हमारे लिए पूंजी है कि इन सभी का अर्थ यीशु के प्रकाश में देखें:
1. यीशु एक सिद्ध बलिदान हैं
हर दिन बलिदान किए जाने वाले बैलों की संख्या का गिरना (गिनती 29), तेरह से सात, एक, फिर ऐसा समय आया जब किसी बलिदान की आवश्यकता नहीं थी। यीशु, एक सिद्ध बलिदान ने अन्य बलिदानों की आवश्यकता को मिटा दिया।
2. यीशु में कोई नर या नारी नहीं हैं
प्रतिज्ञाओं के विषय में यें नियम (गिनती 30) महिलाओं को सुरक्षित रखते हैं और उनके विरूद्ध भेदभाव करते हैं। हमें याद रखने की आवश्यकता है कि बहुत से प्राचीन समाज पुरुष प्रधान थे, और पुरुषों को परिवार का प्रमुख माना जाता था। यें नियम शायद से इसलिए बनाए गए थे कि महिलाओं को ऐसी स्थितियों में सुरक्षित रखा जा सके, जहाँ पर उन्हें ऐसी एक प्रतिज्ञा को पूरा करने से रोका जाता था जो उन्होंने की थी।
किंतु, हमें इसे नये नियम की आँखो से पढ़ने की आवश्यकता है, और पौलुस प्रेरित के वचनों के द्वारा – कि मसीह में ना तो कोई नर है ना नारी (गलातियो 3:28)। गिनतीयों की पुस्तक में यह लेखांश एक संस्कृतिक के संदर्भ में बात कर रहा है, ना कि लिंग के विषय में एक सिद्धांत स्थापित कर रहा है।
3. यीशु ने कहा, 'अपने शत्रुओं से प्रेम करो'
जैसा कि हमने मिद्यानियों के बदले के बारे में पढ़ा है, यह याद दिलाता है कि परमेश्वर उन लोगों को कितनी गंभीरतापूर्वक लेते हैं जो लोगों को परमेश्वर से दूर ले जाते हैं। ऐसा दिखाई देता है कि मिद्यानियों ने जान बूझकर ऐसा करने की कोशिश की, पहले यौन-संबंध के द्वारा, और फिर सेना के विरोध के द्वारा (गिनती 31:16; व.18 भी देखे)।
फिर भी, हमें अवश्य ही न्याय के इस कार्य को यीशु के नजरिये से पढ़ना चाहिए, जिसने कहा, 'अपने शत्रुओं से प्रेम करो' (मत्ती 5:44)। इन सभी की कुँजी है क्रूस। क्रूस पर हम दुबारा देखते हैं कि परमेश्वर पाप को कितनी गंभीरता से लेते हैं, और उनके न्याय की पूर्ण सीमा। फिर भी हम यह भी देखते हैं कि वह चाहते हैं कि हम सभी को आशीष दें और उन्हें छुड़ाएं।
यह इस तरह के लेखांशो के लिए हमारे उत्तर को बदलता है। पौलुस लिखते हैं, 'बदला मत लो' (रोमियो 12:19)। इसके बजाय, हमें प्रेम का जीवन जीना चाहिए। जैसा कि संत यूहन्ना लिखते हैं, 'प्रेम में कोई भय नहीं है। लेकिन सिद्ध प्रेम भय को बाहर निकालता है' (1यूहन्ना 4:18)। यह डर पर जय पाने का एक तरीका है।
प्रार्थना
पिप्पा भी कहते है
भजन संहिता 39:4
मैं उस तरह से प्रार्थना नहीं करना चाहूँगा जिस तरह से दाऊद ने प्रार्थना की, परमेश्वर से माँगते हुए कि वह उसके जीवन के अंत को दिखाए और उसके जीवित रहने के दिनों की संख्या को बताएँ। इसके बजाय मैं परमेश्वर पर भरोसा करना चुनूँगा कि जब वह मुझे घर ले जाएँगे तब यह सही समय होगा। लेकिन मैं जानता हूँ कि जीवन कितना क्षणिक है और कितनी तेजी से यह चला जाता है। यह मुझे एक प्रश्न पूछने पर मजबूर करता है कि, क्या मैं वह सब कर रहा हूँ, जो मुझे हर दिन करना चाहिए?
दिन का वचन
लूका – 8:24
"तब उन्होंने पास आकर उसे जगाया, और कहा; हे स्वामी! स्वामी! हम नाश हुए जाते हैं: तब उस ने उठकर आन्धी को और पानी की लहरों को डांटा और वे थम गए, और चैन हो गया।"

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संदर्भ
नोट्स:
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