परमेश्वर तकलीफें क्यों आने देते हैं?
परिचय
एक साल का एक लड़का सीढ़ी पर से नीचे गिर गया। उसने अपना सारा बचपन और जवानी अस्पताल में आने - जाने में बिता दी। गॅविन रीड, मेडस्टोन के पूर्व बिशप, ने चर्च में उनके साथ बातचीत की। लड़के ने टिप्पणी की, ‘परमेश्वर न्यायी हैं’। ग़ॅविन ने उन्हें रोक कर पूछा, ‘आपकी उम्र कितनी है?’ लड़के ने जवाब दिया,‘सतरह साल’। ‘आपने अस्पताल में कितने वर्ष बिताये?’ लड़के ने कहा, ‘तेरह साल’। गॅविन ने पूछा, ‘क्या आपको लगता है कि परमेश्वर न्यायी हैं?’ उसने जवाब दिया, ‘मुझे पूर्ण बनाने के लिए परमेश्वर के पास पूरा अनंत काल है।’
हम शीघ्र तृप्ति की दुनिया में रहते हैं जिसने लगभग पूरी तरह से अपने आंतरिक दृष्टिकोण को खो दिया है। नया नियम भविष्य के बारे में वायदों से भरा हुआ है: सारी सृष्टि फिर से नई हो जाएगी। यीशु इन्हें फिर से नया बनाने के लिए वापस आनेवाले हैं, ‘फिर मैं ने नये आकाश और नयी पृथ्वी को….’ (प्रकाशितवाक्य 21:1)। फिर कोई रोना नहीं होगा, क्योंकि तब कोई दु:ख और दर्द नहीं होगा। हमारे दोषपूर्ण, नाशवान शरीर, यीशु के महिमामयी देह के समान बदल जाएंगे।
परमेश्वर की मूल सृष्टि में कोई कष्ट उठाना नहीं था (उत्पत्ति 1-2 देखें)। परमेश्वर के विरूद्ध विद्रोह करने से पहले दुनिया में कोई शोक नहीं था। जब परमेश्वर नयी पृथ्वी और नया स्वर्ग बनाएंगे तो वहाँ कोई शोक - विलाप न होगा (प्रकाशितवाक्य 21:3-4)। इसलिए शोक, परमेश्वर की दुनिया में बाहरी तत्व है।
अवश्य ही यह इस प्रश्न के लिए संपूर्ण उत्तर नहीं है कि, ‘परमेश्वर तकलीफें क्यों आने देते हैं?’ जैसे कि हमने कल देखा कि इसके लिए कोई भी सरल या संपूर्ण समाधान नहीं है, लेकिन आज का हर एक पद्यांश हमें और भी अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
भजन संहिता 16:1-11
दाऊद का एक गीत।
16हे परमेश्वर, मेरी रक्षा कर, क्योंकि मैं तुझ पर निर्भर हूँ।
2 मेरा यहोवा से निवेदन है, “यहोवा,
तू मेरा स्वामी है।
मेरे पास जो कुछ उत्तम है वह सब तुझसे ही है।”
3 यहोवा अपने लोगों की धरती
पर अद्भुत काम करता है।
यहोवा यह दिखाता है कि वह सचमुच उनसे प्रेम करता है।
4 किन्तु जो अन्य देवताओं के पीछे उन की पूजा के लिये भागते हैं, वे दु:ख उठायेंगे।
उन मूर्तियों को जो रक्त अर्पित किया गया, उनकी उन बलियों में मैं भाग नहीं लूँगा।
मैं उन मूर्तियों का नाम तक न लूँगा।
5 नहीं, बस मेरा भाग यहोवा में है।
बस यहोवा से ही मेरा अंश और मेरा पात्र आता है।
हे यहोवा, मुझे सहारा दे और मेरा भाग दे।
6 मेरा भाग अति अद्भुत है।
मेरा क्षय अति सुन्दर है।
7 मैं यहोवा के गुण गात हूँ क्योंकि उसने मुझे ज्ञान दिया।
मेरे अन्तर्मन से रात में शिक्षाएं निकल कर आती हैं।
8 मैं यहोवा को सदैव अपने सम्मुख रखता हूँ,
और मैं उसका दक्षिण पक्ष कभी नहीं छोडूँगा।
9 इसी से मेरा मन और मेरी आत्मा अति आनन्दित होगी
और मेरी देह तक सुरक्षित रहेगी।
10 क्योंकि, यहोवा, तू मेरा प्राण कभी भी मृत्यु के लोक में न तजेगा।
तू कभी भी अपने भक्त लोगों का क्षय होता नहीं देखेगा।
11 तू मुझे जीवन की नेक राह दिखायेगा।
हे यहोवा, तेरा साथ भर मुझे पूर्ण प्रसन्नता देगा।
तेरे दाहिने ओर होना सदा सर्वदा को आन्नद देगा।
समीक्षा
इस जीवन के कष्ट को अनंत के संदर्भ में देखें
आज का भजन कुछ पुराने नियम के पद्यांशों में से एक है जो परमेश्वर की उपस्थिति में अनंत की आशा का पूर्वाभास है। दाऊद लिखते हैं, ‘क्योंकि तू मेरे प्राण को अधोलोक में न छोड़ेगा, न अपने पवित्र भक्त को सड़ने देगा’॥ तू मुझे जीवन का रास्ता दिखाएगा; तेरे निकट आनन्द की भरपूरी है, तेरे दाहिने हाथ में सुख सर्वदा बना रहता है’ (पद - 10-11)।
यह हमारे भविष्य की आशा है। ये वचन दर्शाते हैं कि यीशु के पुनरूत्थान को पवित्र शास्त्र में पहले ही बता दिया गया था (प्रेरितों के कार्य 2:25-28 देखें)। यह जीवन है न कि अंत। आप परमेश्वर की उपस्थिति में अंनत की, आनंद की भरपूरी और सदा के लिए प्रसन्नता की आशा कर सकते हैं। ‘इस समय के दु:ख और क्लेश उस महिमा के सामने, जो हम पर प्रगट होने वाली है, कुछ भी नहीं हैं’ (रोमियों 8:18)।
प्रार्थना
मत्ती 18:10-35
खोई भेड़ की दृष्टान्त कथा
10 “सो देखो, मेरे इन मासूम अनुयायियों में से किसी को भी तुच्छ मत समझना। मैं तुम्हें बताता हूँ कि उनके रक्षक स्वर्गदूतों की पहुँच स्वर्ग में मेरे परम पिता के पास लगातार रहती है। 11
12 “बता तू क्या सोचता है? यदि किसी के पास सौ भेड़ें हों और उनमें से एक भटक जाये तो क्या वह दूसरी निन्यानवें भेड़ों को पहाड़ी पर ही छोड़ कर उस एक खोई भेड़ को खोजने नहीं जाएगा? 13 वह निश्चय ही जाएगा और जब उसे वह मिल जायेगी, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ तो वह दूसरी निन्यानवें की बजाये-जो खोई नहीं थीं, इसे पाकर अधिक प्रसन्न होगा। 14 इसी तरह स्वर्ग में स्थित तुम्हारा पिता क्या नहीं चाहता कि मेरे इन अबोध अनुयायियों में से कोई एक भी न भटके।
जब कोई तेरा बुरा करे
15 “यदि तेरा बंधु तेरे साथ कोई बुरा व्यवहार करे तो अकेले में जाकर आपस में ही उसे उसका दोष बता। यदि वह तेरी सुन ले, तो तूने अपने बंधु को फिर जीत लिया। 16 पर यदि वह तेरी न सुने तो दो एक को अपने साथ ले जा ताकि हर बात की दो तीन गवाही हो सकें। 17 यदि वह उन को भी न सुने तो कलीसिया को बता दे। और यदि वह कलीसिया की भी न माने, तो फिर तू उस से ऐसे व्यवहार कर जैसे वह विधर्मी हो या कर वसूलने वाला हो।
18 “मैं तुम्हें सत्य बताता हूँ जो कुछ तुम धरती पर बाँधोगे स्वर्ग में प्रभु के द्वारा बाँधा जायेगा और जिस किसी को तुम धरती पर छोड़ोगे स्वर्ग में परमेश्वर के द्वारा छोड़ दिया जायेगा। 19 “मैं तुझे यह भी बताता हूँ कि इस धरती पर यदि तुम में से कोई दो सहमत हो कर स्वर्ग में स्थित मेरे पिता से कुछ माँगेंगे तो वह तुम्हारे लिए उसे पूरा करेगा 20 क्योंकि जहाँ मेरे नाम पर दो या तीन लोग मेरे अनुयायी के रूप में इकट्ठे होते हैं, वहाँ मैं उनके साथ हूँ।”
क्षमा न करने वाले दास की दृष्टान्त कथा
21 फिर पतरस यीशु के पास गया और बोला, “प्रभु, मुझे अपने भाई को कितनी बार अपने प्रति अपराध करने पर भी क्षमा कर देना चाहिए? यदि वह सात बार अपराध करे तो भी?”
22 यीशु ने कहा, “न केवल सात बार, बल्कि मैं तुझे बताता हूँ तुझे उसे सात बार के सतत्तर गुना तक क्षमा करते रहना चाहिये।”
23 “सो स्वर्ग के राज्य की तुलना उस राजा से की जा सकती है जिसने अपने दासों से हिसाब चुकता करने की सोची थी। 24 जब उसने हिसाब लेना शुरू किया तो उसके सामने एक ऐसे व्यक्ति को लाया गया जिस पर दसियों लाख रूपया निकलता था। 25 पर उसके पास चुकाने का कोई साधन नहीं था। उसके स्वामी ने आज्ञा दी कि उस दास को, उसकी घर वाली, उसके बाल बच्चों और जो कुछ उसका माल असबाब है, सब समेत बेच कर कर्ज़ चुका दिया जाये।
26 “तब उसका दास उसके पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘धीरज धरो, मैं सब कुछ चुका दूँगा।’ 27 इस पर स्वामी को उस दास पर दया आ गयी। उसने उसका कर्ज़ा माफ करके उसे छोड़ दिया।
28 “फिर जब वह दास वहाँ से जा रहा था, तो उसे उसका एक साथी दास मिला जिसे उसे कुछ रूपये देने थे। उसने उसका गिरहबान पकड़ लिया और उसका गला घोटते हुए बोला, ‘जो तुझे मेरा देना है, लौटा दे!’
29 “इस पर उसका साथी दास उसके पैरों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर कहने लगा, ‘धीरज धर, मैं चुका दूँगा।’
30 “पर उसने मना कर दिया। इतना ही नहीं उसने उसे तब तक के लिये, जब तक वह उसका कर्ज़ न चुका दे, जेल भी भिजवा दिया। 31 दूसरे दास इस सारी घटना को देखकर बहुत दुःखी हुए। और उन्होंने जो कुछ घटा था, सब अपने स्वामी को जाकर बता दिया।
32 “तब उसके स्वामी ने उसे बुलाया और कहा, ‘अरे नीच दास, मैंने तेरा वह सारा कर्ज़ माफ कर दिया क्योंकि तूने मुझ से दया की भीख माँगी थी। 33 क्या तुझे भी अपने साथी दास पर दया नहीं दिखानी चाहिये थी जैसे मैंने तुम पर दया की थी?’ 34 सो उसका स्वामी बहुत बिगड़ा और उसे तब तक दण्ड भुगताने के लिए सौंप दिया जब तक समूचा कर्ज़ चुकता न हो जाये।
35 “सो जब तक तुम अपने भाई-बंदों को अपने मन से क्षमा न कर दो मेरा स्वर्गीय परम पिता भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करेगा।”
समीक्षा
मनुष्य की स्वतंत्रता और कष्ट के बीच संबंधों को समझना
परमेश्वर आपसे प्रेम करते हैं। प्रेम, प्रेम नहीं है अगर यह ज़बरदस्ती किया जाए; यदि सच में कोई विकल्प है तो यह केवल प्यार ही है। परमेश्वर ने मनुष्य को चुनने का अधिकार और प्रेम करने की या न करने की आज़ादी दी है। इसलिए ज़्यादातर तकलीफें हमारे द्वारा परमेश्वर से या दूसरों से प्यार न करने का चुनाव करने के कारण आती हैं। जैसे कि दाऊद आज के भजन संहिता में लिखते हैं, ‘जो पराए देवता के पीछे भागते हैं उनका दु:ख बढ़ जाएगा;’ (पद - 16:4)।
फिर भी, यीशु पाप और कष्ट के बीच सहज संबंधों से इंकार करते हैं (यूहन्ना 9:1-3)। वह यह भी बताते हैं कि ज़रूरी नहीं कि प्राकृतिक आपदा परमेश्वर की ओर से दंड है (लूका 131-5)। लेकिन कुछ तकलीफें प्रत्यक्ष रूप से या तो हमारे खुद के पापों का या दूसरों के पापों का परिणाम हैं। इस पद्यांश में हम तीन उदाहरणों को देखेंगे:
- भटक जाना
- यीशु उन भेड़ों के बारे में बताते हैं जो मार्ग में ‘भटक’ जाती हैं (मत्ती 18:12)।
- जब हम चरवाहे की सुरक्षा से भटक जाते हैं तो हम असुरक्षित हो जाते हैं। लेकिन परमेश्वर हमें खोजना कभी नहीं छोड़ते क्योंकि ‘तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं, कि इन छोटों में से एक भी नाश हो’ (पद - 14)।
- दूसरों के पाप
- यीशु कहते हैं 'यदि तेरा भाई या तेरी बहन तेरे विरूद्ध अपराध करे,' (पद - 15)। तो ज़्यादातर तकलीफें लोगों के पाप का परिणाम हैं – वैश्विक और सामाजिक स्तर दोनों पर, और इसके अलावा खुद के पापों का भी परिणाम हैं। इस पद्यांश में, यीशु मेल - मिलाप का मार्ग निकालते हैं।
- वह अपने शिष्यों को असीमित क्षमा करने के लिए कहते हैं। यीशु कहते हैं कि जब लोग हमारे विरूद्ध पाप करते हैं तो हमें उन्हें क्षमा करना चाहिये – सिर्फ सात बार नहीं, बल्कि सात के सत्तर गुना बार (पद - 21-22)।
- क्षमा करना आसान नहीं है। क्रूस हमें याद दिलाता है कि यह कितना मूल्यवान और दर्दनाक है। क्षमा करने का मतलब दूसरों ने जो किया है उसकी प्रशंसा करना या क्षमा याचना करना नहीं है और ना ही इसका इंकार करना या यह दिखाना है कि आपको दु:ख पहुँचाया है। बल्कि, आपको पता है कि दूसरे व्यक्ति ने क्या किया है फिर भी आप उसे क्षमा करने के लिए बुलाते हैं। अपने व्यक्तिगत संबंधों में आप द्वेष, बदला और प्रतिकार को अलग रख दें और उस व्यक्ति पर दया और कृपा करें जिसने आपको दु:ख पहुँचाया है।
- अक्षमा
- कभी - कभी क्षमा करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। जैसा कि सी.एस. लेविस ने लिखा है: ‘सब लोग सोचते हैं कि क्षमा पाना एक बहुत अच्छा विचार है जब तक कि उनके पास क्षमा करने के लिए कुछ न हो।’
- अंतिम दृष्टांत में हम अक्षमा के विनाशकारी प्रभाव को देखते हैं। पहला सेवक जो अपेक्षाकृत छोटे से क़र्ज़ को माफ करने के लिए तैयार नहीं था (एक सामान्य व्यक्ति की लगभग 160,000 सालों की वेतन की तुलना में लगभग साढ़े तीन महीने के वेतन के बराबर) वह दूसरे सेवकों के साथ अपने संबंधों को बरबाद कर देता है और दूसरे सेवक को कारावास में डालने के लिए कहता है। तो अक्सर अक्षमा लोगों के बीच संबंधों को बिगाड़ देती है और उनके हिसाब से जिन्होंने उनके विरूद्ध पाप किया है उन लोगों पर दोष लगाते हैं। इसका परिणाम हम विवाहों के टूटने में, संबंधों के टूटने में या समाज में मतभेद पड़ने में देखते हैं।
- हम क्षमा प्राप्त नहीं कर सकते। यीशु ने इसे आपके लिए क्रूस पर हासिल किया है। लेकिन क्षमा करने की आपकी इच्छा इस बात का प्रमाण है कि आप परमेश्वर से मिलने वाली क्षमा को जानते हैं। क्षमा प्राप्त लोग, क्षमा करते हैं। हम में से हर किसी को इतनी क्षमा प्राप्त हुई है कि हमें अपेक्षाकृत छोटे अपराधों को क्षमा करते रहना चाहिये जो हमारे विरूद्ध किये गए हैं।
मैं परमेश्वर का आभारी हूँ कि परमेश्वर कोई सीमा निर्धारित नहीं करते कि वह मुझे कितनी बार क्षमा करेंगे। फिर भी जब मैं दूसरों को देखता हूँ तो मैं यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि, ‘मुझे एक बार या दो बार क्षमा करने में खुशी होगी, लेकिन यदि वे ऐसा करते रहें, तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि मैं उन्हें क्षमा करता रहूँगा।’
जिस तरह से परमेश्वर आपके साथ व्यवहार करते हैं वैसा ही व्यवहार आप अपने हृदय में दूसरों के प्रति विकसित कीजिये।
प्रार्थना
अय्यूब 1:1-3:26
अय्यूब एक उत्तम व्यक्ति
1ऊज नाम के प्रदेश में एक व्यक्ति रहा करता था। उसका नाम अय्यूब था। अय्यूब एक बहुत अच्छा और विश्वासी व्यक्ति था। अय्यूब परमेश्वर की उपासना किया करता था और अय्यूब बुरी बातों से दूर रहा करता था। 2 उसके सात पुत्र और तीन पुत्रियाँ थीं। 3 अय्यूब सात हजार भेड़ों, तीन हजार ऊँटो, एक हजार बैलों और पाँच सौ गधियों का स्वामी था। उसके पास बहुत से सेवक थे। अय्यूब पूर्व का सबसे अधिक धनवान व्यक्ति था।
4 अय्यूब के पुत्र बारी—बारी से अपने घरों में एक दूसरे को खाने पर बुलाया करते थे और वे अपनी बहनों को भी वहाँ बुलाते थे। 5 अय्यूब के बच्चे जब जेवनार दे चुकते तो अय्यूब बड़े तड़के उठता और अपने हर बच्चे की ओर से होमबलि अर्पित करता। वह सोचता, “हो सकता है, मेरे बच्चे अपनी जेवनार में परमेश्वर के विरुद्ध भूल से कोई पाप कर बैठे हों।” अय्यूब इसलिये सदा ऐसा किया करता था ताकि उसके बच्चों को उनके पापों के लिये क्षमा मिल जाये।
6 फिर स्वर्गदूतों का यहोवा से मिलने का दिन आया और यहाँ तक कि शैतान भी उन स्वर्गदूतों के साथ था। 7 यहोवा ने शैतान से कहा, “तू कहाँ रहा?”
शैतान ने उत्तर देते हुए यहोवा से कहा, “मैं धरती पर इधर उधर घूम रहा था।”
8 इस पर यहोवा ने शैतान से कहा, “क्या तूने मेरे सेवक अय्यूब को देखा? पृथ्वी पर उसके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। अय्यूब एक खरा और विश्वासी व्यक्ति है। वह परमेश्वर की उपासना करता है और बुरी बातों से सदा दूर रहता है।”
9 शैतान ने उत्तर दिया, “निश्चय ही! किन्तु अय्यूब परमेश्वर का एक विशेष कारण से उपासना करता है! 10 तू सदा उसकी, उसके घराने की और जो कुछ उसके पास है उसकी रक्षा करता है। जो कुछ वह करता है, तू उसमें उसे सफल बनाता है। हाँ, तूने उसे आशीर्वाद दिया है। वह इतना धनवान है कि उसके मवेशी और उसका रेवड़ सारे देश में हैं। 11 किन्तु जो कुछ उसके पास है, उस सब कुछ को यदि तू नष्ट कर दे तो मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि वह तेरे मुँह पर ही तेरे विरुद्ध बोलने लगेगा।”
12 यहोवा ने शैतान से कहा, “अच्छा, अय्यूब के पास जो कुछ है, उसके साथ, जैसा तू चाहता है, कर किन्तु उसके शरीर को चोट न पहुँचाना।”
इसके बाद शैतान यहोवा के पास से चला गया।
अय्यूब का सब कुछ जाता रहा
13 एक दिन, अय्यूब के पुत्र और पुत्रियाँ अपने सबसे बड़े भाई के घर खाना खा रहे थे और दाखमधु पी रहे थे। 14 तभी अय्यूब के पास एक सन्देशवाहक आया और बोला, “बैल हल जोत रहे थे और पास ही गधे घास चर रहे थे 15 कि शबा के लोगों ने हम पर धावा बोल दिया और तेरे पशुओं को ले गये! मुझे छोड़ सभी दासों को शबा के लोगों ने मार डाला। आपको यह समाचार देने के लिये मैं बच कर भाग निकला हूँ!”
16 अभी वह सन्देशवाहक कुछ कह ही रहा था कि अय्यूब के पास दूसरा सन्देशवाहक आया। दूसरे सन्देशवाहक ने कहा, “आकाश से बिजली गिरी और आपकी भेड़ें और दास जलकर राख हो गये हैं। आपको समाचार देने के लिये केवल मैं ही बच निकल पाया हूँ!”
17 अभी वह सन्देशवाहक अपनी बात कह ही रहा था कि एक और सन्देशवाहक आ गया। इस तीसरे सन्देशवाहक ने कहा, “कसदी के लोगों ने तीन टोलियाँ भेजी थीं जिन्होंने हम पर हमला बोल दिया और ऊँटो को छीन ले गये और उन्होंने सेवकों को मार डाला। आपको समाचार देने के लिये केवल मैं ही बच निकल पाया हूँ!”
18 यह तीसरा दूत अभी बोल ही रहा था कि एक और सन्देशवाहक आगया। इस चौथे सन्देशवाहक ने कहा, “आपके पुत्र और पुत्रियाँ सबसे बड़े भाई के घर खा रहे थे और दाखमधु पी रहे थे। 19 तभी रेगिस्तान से अचानक एक तेज आँधी उठी और उसने मकान को उड़ा कर ढहा दिया। मकान आपके पुत्र और पुत्रियों के ऊपर आ पड़ा और वे मर गये। आपको समाचार देने के लिये केवल मैं ही बच निकल पाया हूँ।”
20 अय्यूब ने जब यह सुना तो उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और यह दर्शाने के लिये कि वह दु:खी और व्याकुल है, उसने अपना सिर मुँड़ा लिया। अय्यूब ने तब धरती पर गिरकर परमेश्वर को दण्डवत किया। 21 उसने कहा:
“मेरा जब इस संसार के बीच जन्म हुआ था,
मैं तब नंगा था, मेरे पास तब कुछ भी नहीं था।
जब मैं मरूँगा और यह संसार तजूँगा,
मैं नंगा होऊँगा और मेरे पास में कुछ नहीं होगा।
यहोवा ही देता है
और यहोवा ही ले लेता,
यहोवा के नाम की प्रशंसा करो!”
22 जो कुछ घटित हुआ था, उस सब कुछ के कारण न तो अय्यूब ने कोई पाप किया और न ही उसने परमेश्वर को दोष दिया।
शैतान द्वारा अय्यूब को फिर दु:ख देना
2फिर एक दिन, यहोवा से मिलने के लिये स्वर्गदूत आये। शैतान भी उनके साथ था। शैतान यहोवा से मिलने आया था। 2 यहोवा ने शैतान से पूछा, “तू कहाँ रहा?”
शैतान ने उत्तर देते हुए यहोवा से कहा, “मैं धरती पर इधर—उधर घूमता रहा हूँ।”
3 इस पर यहोवा ने शैतान से पूछा, “क्या तू मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान देता रहा है? उसके जैसा विश्वासी धरती पर कोई नहीं है। सचमुच वह अच्छा और वह बहुत विश्वासी व्यक्ति है। वह परमेश्वर की उपासना करता है, बुरी बातें से दूर रहता है। वह अब भी आस्थावान है। यद्यपि तूने मुझे प्रेरित किया था कि मैं अकारण ही उसे नष्ट कर दूँ।”
4 शैतान ने उत्तर दिया, “खाल के बदले खाल! एक व्यक्ति जीवित रहने के लिये, जो कुछ उसके पास है, सब कुछ दे डालता है। 5 सो यदि तू अपनी शक्ति का प्रयोग उसके शरीर को हानि पहुँचाने में करे तो तेरे मुँह पर ही वह तुझे कोसने लगेगा!”
6 सो यहोवा ने शैतान से कहा, “अच्छा, मैंने अय्यूब को तुझे सौंपा, किन्तु तुझे उसे मार डालने की छूट नहीं है।”
7 इसके बाद शैतान यहोवा के पास से चला गया और उसने अय्यूब को बड़े दु:खदायी फोड़े दे दिये। ये दु:खदायी फोड़े उसके पाँव के तलवे से लेकर उसके सिर के ऊपर तक शरीर में फैल गये थे। 8 सो अय्यूब कूड़े की ढेरी के पास बैठ गया। उसके पास एक ठीकरा था, जिससे वह अपने फोड़ों को खुजलाया करता था। 9 अय्यूब की पत्नी ने उससे कहा, “क्या परमेश्वर में अब भी तेरा विश्वास है? तू परमेश्वर को कोस कर मर क्यों नहीं जाता!”
10 अय्यूब ने उत्तर देते हुए अपनी पत्नी से कहा, “तू तो एक मूर्ख स्त्री की तरह बातें करती है! देख, परमेश्वर जब उत्तम वस्तुएं देता है, हम उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। सो हमें दु:ख को भी अपनाना चाहिये और शिकायत नहीं करनी चाहिये।” इस समूचे दु:ख में भी अय्यूब ने कोई पाप नहीं किया। परमेश्वर के विरोध में वह कुछ नहीं बोला।
अय्यूब के तीन मित्रों का उससे मिलने आना
11 अय्यूब के तीन मित्र थे:तेमानी का एलीपज, शूही का बिलदद और नामाती का सोपर। इन तीनों मित्रों ने अय्यूब के साथ जो बुरी घटनाएँ घटी थीं, उन सब के बारे में सुना। ये तीनों मित्र अपना—अपना घर छोड़कर आपस में एक दूसरे से मिले। उन्होंने निश्चय किया कि वे अय्यूब के पास जा कर उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करें और उसे ढाढस बँधायें। 12 किन्तु इन तीनों मित्रों ने जब दूर से अय्यूब को देखा तो वे निश्चय नहीं कर पाये कि वह अय्यूब है क्योंकि वह एकदम अलग दिखाई दे रहा था। वे दहाड़ मार कर रोने लगे। उन्होंने अपने कपड़े फाड़ डाले। अपने दु:ख और अपनी बेचैनी को दर्शाने के लिये उन्होंने हवा में धूल उड़ाते हुए अपने अपने सिरों पर मिट्टी डाली। 13 फिर वे तीनों मित्र अय्यूब के साथ सात दिन और सात रात तक भूमि पर बैठे रहे। अय्यूब से किसी ने एक शब्द तक नहीं कहा क्योंकि वे देख रहे थे कि अय्यूब भयानक पीड़ा में था।
अय्यूब का उस दिन को कोसना जब वह जन्मा था
3तब अय्यूब ने अपना मुँह खोला और उस दिन को कोसने लगा जब वह पैदा हुआ था। 2 उसने कहा:
3 “काश! जिस दिन मैं पैदा हुआ था, मिट जाये।
काश! वह रात कभी न आई होती जब उन्होंने कहा था कि एक लड़का पैदा हुआ है!
4 काश! वह दिन अंधकारमय होता,
काश! परमेश्वर उस दिन को भूल जाता,
काश! उस दिन प्रकाश न चमका होता।
5 काश! वह दिन अंधकारपूर्ण बना रहता जितना कि मृत्यु है।
काश! बादल उस दिन को घेरे रहते।
काश! जिस दिन मैं पैदा हुआ काले बादल प्रकाश को डरा कर भगा सकते।
6 उस रात को गहरा अंधकार जकड़ ले,
उस रात की गिनती न हो।
उस रात को किसी महीने में सम्मिलित न करो।
7 वह रात कुछ भी उत्पन्न न करे।
कोई भी आनन्द ध्वनि उस रात को सुनाई न दे।
8 जादूगरों को शाप देने दो, उस दिन को वे शापित करें जिस दिन मैं पैदा हुआ।
वे व्यक्ति हमेशा लिब्यातान (सागर का दैत्य) को जगाना चाहते हैं।
9 उस दिन को भोर का तारा काला पड़ जाये।
वह रात सुबह के प्रकाश के लिये तरसे और वह प्रकाश कभी न आये।
वह सूर्य की पहली किरण न देख सके।
10 क्यों? क्योंकि उस रात ने मुझे पैदा होने से न रोका।
उस रात ने मुझे ये कष्ट झेलने से न रोका।
11 मैं क्यों न मर गया जब मैं पैदा हुआ था?
जन्म के समय ही मैं क्यों न मर गया?
12 क्यों मेरी माँ ने गोद में रखा?
क्यों मेरी माँ की छातियों ने मुझे दूध पिलाया।
13 अगर मैं तभी मर गया होता
जब मैं पैदा हुआ था तो अब मैं शान्ति से होता।
काश! मैं सोता रहता और विश्राम पाता।
14 राजाओं और बुद्धिमान व्यक्तियों के साथ जो पृथ्वी पर पहले थे।
उन लोगों ने अपने लिये स्थान बनायें, जो अब नष्ट हो कर मिट चुके है।
15 काश! मैं उन शासकों के साथ गाड़ा जाता
जिन्होंने सोने—चाँदी से अपने घर भरे थे।
16 क्यों नहीं मैं ऐसा बालक हुआ
जो जन्म लेते ही मर गया हो।
काश! मैं एक ऐसा शिशु होता
जिसने दिन के प्रकाश को नहीं देखा।
17 दुष्ट जन दु:ख देना तब छोड़ते हैं जब वे कब्र में होते हैं
और थके जन कब्र में विश्राम पाते हैं।
18 यहाँ तक कि बंदी भी सुख से कब्र में रहते हैं।
वहाँ वे अपने पहरेदारों की आवाज नहीं सुनते हैं।
19 हर तरह के लोग कब्र में रहते हैं चाहे वे महत्वपूर्ण हो या साधारण।
वहाँ दास अपने स्वामी से छुटकारा पाता है।
20 “कोई दु:खी व्यक्ति और अधिक यातनाएँ भोगता जीवित
क्यों रहें? ऐसे व्यक्ति को जिस का मन कड़वाहट से भरा रहता है क्यों जीवन दिया जाता है?
21 ऐसा व्यक्ति मरना चाहता है लेकिन उसे मौत नहीं आती हैं।
ऐसा दु:खी व्यक्ति मृत्यु पाने को उसी प्रकार तरसता है जैसे कोई छिपे खजाने के लिये।
22 ऐसे व्यक्ति कब्र पाकर प्रसन्न होते हैं
और आनन्द मनाते हैं।
23 परमेश्वर उनके भविष्य को रहस्यपूर्ण बनाये रखता है
और उनकी सुरक्षा के लिये उनके चारों ओर दीवार खड़ी करता है।
24 मैं भोजन के समय प्रसन्न होने के बजाय दु:खी आहें भरता हूँ।
मेरा विलाप जलधारा की भाँति बाहर फूट पड़ता है।
25 मैं जिस डरावनी बात से डरता रहा कि कहीं वहीं मेरे साथ न घट जाये, वही मेरे साथ घट गई।
और जिस बात से मैं सबसे अधिक डरा, वही मेरे साथ हो गई।
26 न ही मैं शान्त हो सकता हूँ, न ही मैं विश्राम कर सकता हूँ।
मैं बहुत ही विपद में हूँ।”
समीक्षा
हमेशा दु:ख के प्रति करूणा से प्रतिक्रिया करें
अय्यूब की पुस्तक कष्ट उठाने के बारे में है। यह मुख्यत: इस प्रश्न के बारे में है कि, ‘आपको दु:ख के प्रति कैसी प्रतिक्रिया करनी चाहिये?’
शायद हम दु:खों के उद्गम के बारे में भी अनुमान लगा पाएं। जब स्वर्गदूत परमेश्वर के सामने इकठ्ठा हुए तो, ‘शैतान भी उनके साथ आया’ (1:6)। ‘वह पूरी धरती पर इधर - उधर घूम रहा था’ (पद - 7)। यह स्पष्ट है कि उसका उद्देश्य ज़्यादा से ज़्यादा दु:ख पहुँचाना है।
ऐसा प्रतीत होता है कि शैतान ही वह स्वर्गदूत है जिसे फेंक दिया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर द्वारा मनुष्य को बनाए जाने से पहले उन्होंने काल्पनात्मक और बुद्धिमान अस्तित्व को बनाया जिसने मनुष्य के आने से पहले आत्मिक जगत में परमेश्वर के प्रति विद्रोह किया था।
इस सच्चाई के फल स्वरूप कि हम इस पतित दुनिया के परिणाम हैं, बहुत से कष्ट का विवरण दिया जा सकता है: एक ऐसी दुनिया जहाँ सारी रचना प्रभावित हुई है, केवल मनुष्य के पाप के कारण ही नहीं, बल्कि उससे शैतान के पाप के कारण भी। आदम और हव्वा के पाप करने से पहले सर्प अस्तित्व में था। आदम और हव्वा के पाप के कारण इस दुनिया में, ‘कांटे और कांटेदार पौधे’ उत्पन्न हुए। उस समय के बाद से ‘यह सृष्टि व्यर्थता के अधीन हो गई’। प्राकृतिक आपदाएं सृष्टि में इस अनियमितता का परिणाम हैं।
शैतान को मनुष्य के जीवन में बहुत से कष्ट लाने की अनुमति मिली, जो कि निर्दोष और खरा था, जो परमेश्वर का भय मानता था और बुराई से दूर रहता था (अय्यूब 1:1)। अय्यूब ने धन और भौतिक संपत्ति(वपद - 13-17), पारिवारिक जीवन (पद - 18-19), व्यक्तिगत स्वास्थ्य (2:1-10) और धीरे - धीरे अपने दोस्तों से समर्थन के क्षेत्र में हानि उठाई।
जब हम किसी अनजान तकलीफों का सामना करते हैं, तो परमेश्वर पर दोष लगाना आसान होता है। फिर भी अय्यूब को पता नहीं था कि वह क्यों कष्ट उठा रहा है, अपने दु:ख में भी वह परमेश्वर पर भरोसा करता रहा और उनकी आराधना करता रहा, जिस तरह से वह अपने अच्छे समय में किया करता था (1:21, 2:10)। लेखक प्रशंसापूर्ण ढंग से हमें बताता है कि, ‘इन सब बातों में भी अय्यूब ने अपने मुंह से कोई पाप नहीं किया’ (पद - 10ब)। सबसे कठिन परिस्थिति में भी वह विश्वासयोग्य बना रहा।
शुरू में अय्यूब के दोस्तों ने सही तरीके से प्रतिक्रिया की: ‘परन्तु उसका दु:ख बहुत ही बड़ा जान कर किसी ने उस से एक भी बात न कही’ (पद - 13)। महान कष्ट की अवस्था में, तर्कसंगत व्याख्या करना प्रतिकूल हो सकता है। सामान्यत: सबसे सकारात्मक बात आप यह कर सकते हैं कि आप उस व्यक्ति के गले में बांहें डालकर ‘उसके साथ दु:ख मनाएं जो दु:खी है’ (रोमियों 12:15), जहाँ तक हो सके उनके दु:ख में शामिल होकर उनके साथ भाग लें।
आज का पद्यांश अय्यूब की कहानी के बारे में नहीं है। अंत में परमेश्वर ने उसकी संपत्ति और सभी चीजों को पहले जैसा कर दिया और उसके पास पहले जितना था उससे भी दो गुना उसे दिया। अब हम जान गए हैं कि इस जीवन में आपके सारे कष्टों के बदले परमेश्वर के पास यीशु के द्वारा आपके लिए सारा अनंत है।
प्रार्थना
पिप्पा भी कहते है
भजन संहिता 16:7
‘मेरा मन भी रात में मुझे शिक्षा देता है।’
रात में मन के अंदर बहुत सी बातें आती हैं, अक्सर चिंताएं। उन्हें प्रार्थना में बदलते हुए, परमेश्वर हमारे साथ बात कर सकते हैं, हमें निर्देश दे सकते हैं और हमारा शरीर चैन पा सकता है (पद - 9)।
दिन का वचन
मत्ती – 18:20
" क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं॥ "
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संदर्भ
नोट्स:
सी।एस। लेविस, मीअर क्रिश्चियानिटी, (विलियम कॉलिंस, 2012).
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